हिन्दू धर्मानुसार 5 वटवृक्षों का महत्व
वैसे तो इस धरती पर करोड़ों वृक्ष हैं, लेकिन उनमें से कुछ वृक्ष ऐसे में भी हैं जो हजारों वर्षों से जिंदा है और कुछ ऐसे हैं जो चमत्कारिक हैं।
कुछ ऐसे भी वृक्ष हैं जिन्हें किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति ने हजारों वर्ष पहले लगाया था या उस व्यक्ति ने उस वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान या समाधि लगाई थी।
हिन्दू धर्मानुसार 5 वटवृक्षों का महत्व अधिक है। अक्षयवट, पंचवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट के बारे में कहा जाता है कि इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता।
संसार में उक्त 5 वटों को पवित्र वट की श्रेणी में रखा गया है।
1-प्रयाग में अक्षयवट,
2-नासिक में पंचवट,
3-वृंदावनमथुरा (भाण्डीरवन)में वंशीवट,
4-गया में गयावट
5-उज्जैन में पवित्र सिद्धवट
1.अक्षयवट :-
अक्षयवट पुराणों में वर्णन आता है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है। अक्षयवट कहलाने वाले इस वृक्ष के एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं।
अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। अक्षय वट प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर आज भी अवस्थित कहा जाता है।हिन्दुओं के अलावा जैन और बौद्ध भी इसे पवित्र मानते हैं। कहा जाता है बुद्ध ने कैलाश पर्वत के निकट प्रयाग के अक्षय वट का एक बीज बोया था। जैनों का मानना है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी।
प्रयाग में इस स्थान को ऋषभदेव तपस्थली (या तपोवन) के नाम से जाना जाता है।वाराणसी और गया में भी ऐसे वट वृक्ष हैं जिन्हें अक्षय वट मान कर पूजा जाता है। कुरुक्षेत्र के निकट ज्योतिसर नामक स्थान पर भी एक वटवृक्ष है जिसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश का साक्षी है।
अमर है अक्षयवट ... जैसा की इसका नाम ही है अक्षय। अक्षय का अर्थ होता है जिसका कभी क्षय न हो, जिसे कभी नष्ट न किया जा सके। इसीलिए इस वृक्ष को अक्षय वट कहते हैं। वट का अर्थ बरगद, बढ़ आदि। इस वृक्ष को मनोरथ वृक्ष भी कहते हैं अर्थात मोक्ष देने वाला या मनोकामना पूर्ण करने वाला। यह वृक्ष प्रयाग में संगम तट पर हजारों वर्षों से स्थित है।
5-5267 वर्ष पुराने है वृक्ष :-
पुरात्व विज्ञान के वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस वृक्ष की रासायनिक उम्र 3250 ईसा पूर्व की बताई जाती है अर्थात 3250+2017=5267 वर्ष का यह वृक्ष है।
पर्याप्त सुरक्षा के बीच संगम के निकट किले में अक्षय वट की एक डाल के दर्शन कराए जाते हैं। पूरा पेड़ कभी नहीं दिखाया जाता। सप्ताह में दो दिन, अक्षय वट के दर्शन के लिए द्वार खोले जाते हैं।
-व्हेनत्सांग 643 ईस्वी में प्रयाग आया था तो उसने लिखा- नगर में एक देव मंदिर है जो अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए विख्यात है। इसके विषय में प्रसिद्ध है कि जो कोई यहां एक पैसा चढ़ाता है वह मानो और तीर्थ स्थानों में सहस्र स्वर्ण मुद्राएंं चढ़ाने जैसा है और यदि यहां आत्मघात द्वारा कोई अपने प्राण विसर्जन कर दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग चला जाता है।
मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएं और पत्तियां बड़े क्षेत्र तक फैली हुई हैं। इसकी सघन छाया में दाईं और बाईं ओर स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से गिरकर अपने प्राण दे चुके लोगों की अस्थियों के ढेर लगे हैं।
वृक्ष को नष्ट करने के अनेक प्रयास हुए .. पठान राजाओं और उनके पूर्वजों ने भी इसे नष्ट करने की असफल कोशिशें की हैं। जहांगीर ने भी ऐसा किया है लेकिन पेड़ पुनर्जीवित हो गया और नई शाखाएं निकल आईं। वर्ष 1693 में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है कि जहांगीर के आदेश पर इस अक्षयवट को काट दिया गया था लेकिन वह फिर उग आया। औरंगजेब ने इस वृक्ष को नष्ट करने के बहुत प्रयास किए। इसे खुदवाया, जलवाया, इसकी जड़ों में तेजाब तक डलवाया। किन्तु वर प्राप्त यह अक्षयवट आज भी विराजमान है। आज भी औरंगजेब के द्वारा जलाने के चिन्ह देखे जा सकते हैं। इस वृक्ष की जड़ें इतने गहरी गई है जिसे जानना मुश्किल है।
धार्मिक महत्व ...द्वादश माधव के अनुसार बालमुकुन्द माधव इसी अक्षयवट में विराजमान हैं। यह वही स्थान है जहाँ माता सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी और जैन धर्म के पद्माचार्य की उपासना पूरी हुई थी। पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने थे। तब अंत में तीनों देवताओं ने अपनी शक्ति पुंज के द्वारा पृथ्वी के पाप बोझ को हल्का करने के लिए एक 'वृक्ष' उत्पन्न किया। यह एक बरगद का वृक्ष था जिसे आज अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। यह आज भी विद्यमान है।
9-श्रीराम से जुड़ी कथा :-
प्रयाग के दक्षिणी तट पर झूंसी नामक स्थान है जिसका प्राचीन नाम पुरुरवा था। कालांतर में इसका नाम उलटा प्रदेश पड़ गया। फिर बिगड़ते बिगड़ते झूंसी हो गया। उल्टा प्रदेश पड़ने का कारण यह है कि यहां शाप के चलते सब कुछ उल्टा पुल्टा था। यहां के महल की छत नीचे बनी है जो आज भी है। इसकी खिड़कियां ऊपर तथा रोशन दान नीचे बने हैं। यानी कि सब कुछ उलटा। मान्यता अनुसार उलटा प्रदेश इसलिए पड़ा, क्योंकि यहां भगवान शिव अपनी पत्नीं पार्वती के साथ एकांत वास करते थे तथा यहां के लिए यह शाप था कि जो भी व्यक्ति इस जंगल में प्रवेश करेगा वह औरत बन जाएगा। मतलब उल्टा होगा।
त्रेतायुग में श्रीराम को जब अपनी माता कैकेयी के शाप से वनवास हुआ तो उनके कुल पुरुष भगवान सूर्य बड़े ही दुखी हुए। उन्होंने हनुमान जी को आदेश दिया कि वनवास के दौरान राम को होने वाली कठिनाईयों में सहायता करोगे। चूंकि हनुमान ने भगवान सूर्य से ही शिक्षा दीक्षा ग्रहण की थी। अतः अपने गुरु का आदेश मान कर वह प्रयाग में संगम के तट पर आकर उनका इंतजार करने लगे। कारण यह था कि वह किसी स्त्री को लांघ नहीं सकते थे। गंगा, यमुना एवं सरस्वती तीनो नदियां ही थी। इसलिए उनको न लांघते हुए वह संगम के परम पावन तट पर भगवान राम की प्रतीक्षा करने लगे।
जब भगवान राम अयोध्या से चले तो उनको इस झूंसी या उलटा प्रदेश से होकर ही गुजरना पड़ता, लेकिन प्रचलित मान्यता अनुसार शिव के शाप के कारण उन्हें स्त्री बनना पड़ता।
इसलिए उन्होंने रास्ता ही बदल दिया। एक और भी कारण ..भगवान राम के रास्ता बदलने का पड़ा। यदि वह सीधे गंगा को पार करते तो यहां पर प्रतीक्षा करते हनुमान सीधे उनको लेकर दंडकारण्य उड़ जाते तथा बीच रास्ते में अहिल्या उद्धार, शबरी उद्धार तथा ताड़का संहार आदि कार्य छूट जाते।
यही सोच कर भगवान श्रीराम ने रास्ता बदलते हुए श्रीन्गवेर पुर से गंगाजी को पार किया। चूंकि भगवान श्रीराम के लिए शर्त थी कि वह वनवास के दौरान किसी गांव में प्रवेश नहीं करेगें तो उन्होंने इस शर्त को भी पूरा कर दिया।
इस बात को प्रयाग में तपस्यारत महर्षि भारद्वाज भली भांति जानते थे। वह भगवान श्रीराम की अगवानी करने के पहले ही श्रीन्गवेरपुर पहुंच गए, भगवान राम ने पूछा कि हे महर्षि! मैं रात को कहां विश्राम करूं? महर्षि ने बताया कि एक वटवृक्ष है।
हम चल कर उससे पूछते हैं कि वह अपनी छाया में ठहरने की अनुमति देगा या नहीं। कारण यह है कि तुम्हारी माता कैकेयी के भय से कोई भी अपने यहां तुमको ठहरने की अनुमति नहीं देगा।
सबको यह भय है कि कही अगर वह तुमको ठहरा लिया, तथा कैकेयी को पता चल गाया तो वह राजा दशरथ से कहकर दंड दिलवा देगी। इस प्रकार भगवान राम को लेकर महर्षि भारद्वाज उस वटवृक्ष के पास पहुंचे।
भगवान राम ने उनसे पूछा कि क्या वह अपनी छाया में रात बिताने की अनुमति देगें। इस पर उस वटवृक्ष ने पूछा कि मेरी छाया में दिन-रात पता नहीं कितने लोग आते एवं रात्री विश्राम करते हैं लेकिन कोई भी मुझसे यह अनुमति नहीं मांगता। क्या कारण है कि आप मुझसे अनुमति मांग रहे हैं? महर्षि ने पूरी बात बताई। वटवृक्ष ने कहा, 'हे ऋषिवर! यदि किसी के दुःख में सहायता करना पाप है। किसी के कष्ट में भाग लेकर उसके दुःख को कम करना अपराध है तो मैं यह पाप और अपराध करने के लिये तैयार हूं। आप निश्चिन्त होकर यहां विश्राम कर सकते हैं और जब तक इच्छा हो रह सकते हैं।'
यह बात सुन कर भगवान राम बोले 'हे वटवृक्ष! ऐसी सोच तो किसी मनुष्य या देवता में भी बड़ी कठनाई से मिलती है। आप वृक्ष होकर यदि इतनी महान सोच रखते हैं तो आप आज से वटवृक्ष नहीं बल्कि 'अक्षय वट' हो जाओ। जो भी तुम्हारी छाया में क्षण मात्र भी समय बिताएगा उसे अक्षय पुण्य फल प्राप्त होगा और तब से यह वृक्ष पुराण एवं जग प्रसिद्ध अक्षय वट (Immoratl Tree) के नाम से प्रसिद्ध होकर आज भी संगम के परम पावन तट पर स्थित है।
2- पंचवट:-
पंचवटी नासिक ज़िला, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के निकट स्थित एक प्रसिद्ध पौराणिक स्थान है।इस क्षेत्र का नाम नासिक पड़ने के पीछे का कारण भी यहां घटी घटना ही मानी जाती है। इसी क्षेत्र में लक्ष्मण द्वारा शूर्पनखा की नासिका यानी नाक काटे जाने की वजह से यह क्षेत्र नासिक के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यहाँ पर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और सीता सहित अपने वनवास काल में काफ़ी दिनों तक रहे थे और यहीं से लंका के राजा रावण ने माता सीता का हरण किया ।पंचवटी नाशिक के उत्तरी भाग में स्थित है। माना जाता है कि भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ कुछ समय के लिए पंचवटी में रहे थे। इस कारण भी पंचवटी प्रसिद्ध है।
वर्तमान समय में पंचवटी में जिस जगह से सीता का अपहरण किया गया था वह सीता गुफा पांच बरगद के पेडों के समीप है। यह नाशिक का एक अन्य प्रमुख आकर्षण जगह है। इस गुफा में प्रवेश करने के लिए संकरी सीढ़ियों से गुजरना पड़ता है।
पुराण में वर्णित पंचवटी पौराणिक ग्रन्थ 'स्कन्द पुराण' के हेमाद्रीय व्रत खण्ड के अनुसार पंचवटी का वर्णन निम्रानुसार है- 'पीपल,बेल, वट, धातृ (आंवला) व अशोक ये पांचों वृक्ष पंचवटी कहे गये हैं। इनकी स्थापना पांच दिशाओं में करना चाहिए। अश्वत्थ (पीपल) पूर्व दिशा में, उत्तर दिशा में, वट (बरगद) पश्चिम दिशा में, धातृ (आंवला) दक्षिण दिशा में तपस्या के लिए स्थापना करनी चाहिए। पांच वर्षों के पश्चात् चार हाथ की सुन्दर व सुमनोहर वेदी की स्थापना बीच में कराना चाहिए। यह अनन्त फलों को देने वाली व तपस्या का फल प्रदान करने वाली है।'
3 - वंशीवट:-
1-'वंशीवट' ब्रजमण्डल के द्वादश वनों में से एक भाण्डीरवन में स्थित है। यह श्रीकृष्ण की रासलीला का स्थल है।तहसील मांट मुख्यालय से एक किमी दूर यमुना किनारे यह वह स्थान है जहां पर कन्हैया नित्य गाय चराने जाते थे।वंशीवट स्थान वही है जो भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में अपनी माता यशोदा माता से कहा था। इसी स्थान पर रास बिहारी ने तरह-तरह की लीलाएं कीं।
बेणुवादन, दावानल का पान, प्रलम्बासुर का वध तथा नित्य रासलीला करने के साक्षी रहे इस वट का नाम वंशीवट इसलिए पड़ा क्योंकि इसकी शाखाओं पर बैठकर श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे और गोपियों को रिझाते थे। कभी-कभी श्रीकृष्ण सुहावनी रात्रि काल में यहीं से प्रियतमा गोपियों के नाम 'राधिके ! ललिते ! विशाखे' ! पुकारते। इन सखियों के आने पर इस वंशीवट के नीचे रासलीलाएँ सम्पन्न होती थीं।
श्रीकृष्ण गोचारण के समय इसी वृक्ष के नीचे राधा और उनकी सखियों के साथ रास रचाते थे। वंशीवट ब्रजमण्डल में भांडीरवन के भांडीरवट से थोड़ी ही दूरी पर अवस्थित है। यह वंशीवट वृन्दावन वाले वंशीवट से पृथक है। श्रीकृष्ण जब यहाँ गोचारण कराते, तब वे इसी वट वृक्ष के ऊपर चढ़कर अपनी वंशी से गायों का नाम पुकार कर उन्हें एकत्र करते और उन सबको एकसाथ लेकर अपने गोष्ठ में लौटते।
-वंशीवट नामक इस वटवृक्ष से आज भी कान लगाकर सुनें तो ढोल मृदंग, राधे-राधे की आवाज सुनायी देती है।इसकी छांव में बैठकर भजन करने से मनोकामना पूरी होती है इसी स्थान पर सैकड़ों साधु तपस्या में लीन रहते हैं।
4- गयावट :-
उज्जैन के सिद्ध वट के बाद यहां गया में गया वट के पास पितरों का पिंडदान किया जाता है। श्राद्ध, तर्पण एवं पिंडदान की नगरी गया में... एक अति प्राचीन और विशाल वटवृक्ष हैं जिसे गयावृक्ष कहा जाता है। गया का नाम गयासुर नामक एक असुर पर रखा गया था। वर्तमान में इस वृक्ष को बोधिवृक्ष कहते हैं। बोधगया मुख्य मार्ग पर माढ़नपुर से थोड़ी दूरी पर चाहरदीवारी से घिरे विस्तृत पक्के आंगन के मध्य शोभायमान है यह वटवृक्ष।
मान्यता है कि गया वृक्ष का रोपण भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर किया था। मुक्तिप्रद तीर्थ गया में जिस स्थान पर अंतिम पिंड होता है वह गयावट ही है। कुछ लोग इस अक्षयवट इसलिए कहते हैं क्योंकि यह भी अक्षय है। विशाल जड़ों से युक्त बड़े क्षेत्र में विस्तृत गयावट के प्रथम दर्शन से ही इसकी प्राचीनता का सहज अनुमान लग जाता है। मगध की श्रेष्ठ धरोहर श्रीविष्णुपद मंदिर और ब्रह्मयोनि पर्वत के साथ-साथ आदि शक्तिपीठ महामाया मंगला गौरी के एक सीध में स्थित गयावट के पास वृद्ध प्रपिता माहेश्वर मंदिर, रुक्मणी तालाब, गदालोल दधिकुल्या और मधुकुल्या तीर्थ वेदी प्रमुख हैं।
-गया वट की कथा :-
जनश्रुति अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ गया में अपने पिता दशरथ का श्राद्धकर्म करने के लिए आए थे। श्राद्ध कर्म के दौरान श्रीराम और लक्ष्मण कुछ सामान लेने चले गए थे इतने में ही राजा दशरथ प्रकट हुए और दोनों पुत्रों की अनुपस्थिति में सीता को ही पिंडदान करने का निर्देश दिया।
-माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। बाद में जब भगवान श्रीराम लौटे तो उन्हें पूरा घटनाक्रम बताया गया लेकिन उन्हें इस पर सहज ही विश्वास नहीं हुआ। ऐसे में माता सीता ने जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने आकर सच बताने को कहा। पंडा (जिसने पिंडदान करवाया), फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने असत्य बोल दिया, परन्तु वटवृक्ष ने सच बोलकर माता सीता की लाज रख ली। ऐसे में माता सीता ने फल्गु को बिना पानी की नदी, तथा केतकी फूल को शुभकार्यो से वंचित होने का शाप दे दिया परन्तु वटवृक्ष को अक्षय रहने का वरदान दिया।
गया तीर्थ में श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय का दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है।मान्यता है कि इससे पितृ तृप्त होते हैं। शास्त्रों में पितृ का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है।
कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची है। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। यही कारण है कि देश में श्राद्घ के लिए 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिसमें बिहार के गया का स्थान सर्वोपरि है।
गयावट जिसे बौद्धवट भी कहा जाता है गया से 17 किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहीं बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
5-सिद्धवट :-
उज्जैन के पास भैरवगढ़ के पूर्व में शिप्रा के मनोहर तट पर प्रचीन सिद्धवट का स्थान है। इसे शक्तिभेद तीर्थ के नाम से जाना जाता है। हिंदू पुराणों में इस स्थान की महिमा का वर्णन
किया गया है। उज्जैन में पवित्र सिद्धवट स्कंद पुराण अनुसार पार्वती माता द्वारा लगाए गए इस वट की शिव के रूप में पूजा होती है। माता पार्वती के पुत्र कार्तिक स्वामी को यहीं पर सेनापति नियुक्त किया गया था। यहीं उन्होंने तारकासुर का वध किया था।
यहाँ पर नागबलि, नारायण बलि-विधान का विशेष महत्व है। संपत्ति, संतित और सद्गति की सिद्धि के कार्य होते हैं। पार्वती माता द्वारा लगाए गए इस वट की शिव के रूप में पूजा होती
है।
मां पार्वती ने शिव को पतिरूप में पाने के लिए यहीं पर इस वृक्ष को लगाकर तपस्या की थी। माता की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने प्रकट होकर पार्वती माता को पत्नी रूप में स्वीकार ही नहीं किया बल्कि यह वरदान भी दिया कि जो कोई इस वटवृक्ष पर दूध चढ़ाएगा उसे मेरा आशीर्वाद मिलेगा और उसके पितरों को मोक्ष।
कहते हैं कि तारकासुर के वध के लिए इसी वट के नीचे पार्वती के पुत्र कार्तिक स्वामी ने घोर तप किया और फिर उन्हें यहीं पर सेनापति नियुक्त किया गया था। बाद में इस वटवृक्ष के भगवान शिव से सिद्धवट घोषित कर उसके युगो युगो तक बने रहने का वरदान दिया।
यहां तीन तरह की सिद्धि होती है संतति, संपत्ति और सद्गति। तीनों की प्राप्ति के लिए यहां पूजन किया जाता है। सद्गति अर्थात पितरों के लिए अनुष्ठान किया जाता है। संपत्ति अर्थात लक्ष्मी कार्य के लिए वृक्ष पर रक्षा सूत्र बांधा जाता है और संतति अर्थात पुत्र की प्राप्ति के लिए उल्टा सातिया (स्वस्विक) बनाया जाता है। यह वृक्ष तीनों प्रकार की सिद्धि देता है इसीलिए इसे सिद्धवट कहा जाता है।
-स्कंद पुराण में इसको कल्पवृक्ष भी कहा गया है। यह पितृमोक्ष का तीर्थ बताया गया है।
यहाँ पर कालसर्प शांति का विशेष महत्व है, इसीलिए कालसर्प दोष की भी पूजा होती है। वर्तमान में इस सिद्धवट को कर्मकांड, मोक्षकर्म, पिंडदान, कालसर्प दोष पूजा एवं अंत्येष्टि के लिए प्रमुख स्थान माना जाता है। कहते हैं, मुगल बादशाहों ने धार्मिक महत्व जानकर वट वृक्ष के मूल पर कुठार चलाया था, वृक्ष नष्ट कर उस पर लोहे के बहुत मोटे पतरे-तवे जड़ा दिए थे। कहते हैं कि उस पर भी अंकुर फूट निकले, आज भी वृक्ष हरा-भरा है। मंदिर में फर्श लगी हुई है।
*🌹🙇जय श्री राम जय शिवोहम🙇🌹*
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