मंदिर जाना क्यों जरूरी
हमे मन्दिर क्यों जाना चाहिए?
मित्रो अवश्य पढ़ें यह अति दुर्लभ प्रस्तुति है।
मंदिर जाना इसलिए जरूरी है कि वहां जाकर आप यह सिद्ध करते हैं कि आप देव शक्तियों में विश्वास रखते हैं तो देव शक्तियां भी आपमें ...आपने अक्सर हमारे बड़े-बुजूर्गो को कहते हुए सुना होगा कि रोज मंदिर जाना चाहिए। दरअसल मंदिर जाने की परंपरा किसी एक कारण से नहीं बनाई गई नहीं बल्कि इसके पीछे कई कारण है।
सबसे पहला कारण है भगवान, हम इस मनोभाव से भगवान की शरण में जाते हैं कि हमारी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, जो बातें हम दुनिया से छिपाते हैं वो भगवान के आगे बता देते हैं, इससे भी मन को शांति मिलती है, बेचैनी खत्म होती है।
दूसरा कारण है वास्तु, मंदिरों का निर्माण वास्तु को ध्यान में रखकर किया जाता है। हर एक चीज वास्तु के अनुरूप ही बनाई जाती है, इसलिए वहां सकारात्मक ऊर्जा ज्यादा मात्रा में होती है।
तीसरा कारण है वहां जो भी लोग जाते हैं वे सकारात्मक और विश्वास भरे भावों से जाते हैं सो वहां सकारात्मक ऊर्जा ही अधिक मात्रा में होती है।
चौथा कारण है मंदिर में होने वाले नाद यानी शंख और घंटियों की आवाजें, ये आवाजें वातावरण को शुद्ध करती हैं।
पांचवां कारण है वहां लगाए जाने वाले धूप-बत्ती जिनकी सुगंध वातावरण को शुद्ध बनाती है। इस तरह मंदिर में लगभग सभी ऐसी चीजें होती हैं जो वातावरण की सकारात्मक ऊर्जा को संग्रहित करती हैं। हम जब मंदिर में जाते हैं तो इसी सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव हम पर पड़ता है और हमें भीतर तक शांति का अहसास होता है। इसीलिए रोज मंदिर जाना चाहिए।
मंदिर जाना क्यों जरूरी?
मंदिर' का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। 'मंदिर' का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को द्वार भी कहते हैं, जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं, जैसे कि शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है, वह मंदिर है तो उसके मायने बदल जाते हैं। मंदिर को अंग्रेजी में 'टेम्पल' कहते हैं। मंदिर में संध्योपासना की जाती है, जिसे संध्यावंदन भी कहते हैं।
संध्योपासना के 5 प्रकार हैं-
1.प्रार्थना, 2.ध्यान, 3.कीर्तन, 4.यज्ञ और
5.पूजा-आरती।
व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। सभी के अलग-अलग समय नियुक्त हैं।
इसलिए मंदिर जाना जरूरी...
पहला कारण : मंदिर जाना इसलिए जरूरी है कि वहां जाकर आप यह सिद्ध करते हैं कि आप देव शक्तियों में विश्वास रखते हैं तो देव शक्तियां भी आपमें विश्वास रखेंगी। यदि आप नहीं जाते हैं तो आप कैसे व्यक्त करेंगे की आप परमेश्वर या देवताओं की तरफ है? यदि आप देवताओं की ओर देखेंगे तो देवता भी आपकी ओर देखेंगे।
दूसरा कारण : अच्छे मनोभाव से जाने वाले की सभी तरह की समस्याएं प्रतिदिन मंदिर जाने से समाप्त हो जाती है। मंदिर जाते रहने से मन में दृढ़ विश्वास और उम्मीद की ऊर्जा का संचार होता है। विश्वास की शक्ति से ही धन, समृद्धि और पुत्र-पुत्री रत्न की प्राप्ति होती है।
तीसरा कारण : यदि आपने कोई ऐसा अपराध किया है कि जिसे आप ही जानते हैं तो आपके लिए प्रायश्चित का समय है। आप क्षमा प्रार्थना करके अपने मन को हल्का कर सकते हैं। इससे मन की बैचेनी समाप्त होती है और आप का जीवन फिर से पटरी पर आ जाता है।
चौथा कारण : मंदिर में शंख और घंटियों की आवाजें वातावरण को शुद्ध कर मन और मस्तिष्क को शांत करती हैं। धूप और दीप से मन और मस्तिष्क के सभी तरह के नकारात्मक भाव हट जाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
पांचवां कारण : मंदिर के वास्तु और वातावरण के कारण वहां सकारात्मक उर्जा ज्यादा होती है। प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र थे।
धरती के दो छोर हैं- एक उत्तरी ध्रुव और दूसरा दक्षिणी ध्रुव। उत्तर में मुख करके पूजा या प्रार्थना की जाती है इसलिए प्राचीन काल के सभी मंदिरों के द्वार उत्तर में होते थे। हमारे प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां मंदिर बनाए। मंदिर में शिखर होते हैं।
शिखर की भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं।
व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे-धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है। मंदिर का भव्य होना जरूरी है। भव्यता से ही दिव्यता का अवतरण होता है। मंदिर वास्तु का ध्यान रखना जरूरी है।
यदि आप मंदिर में हैं तो इन बातों का विशेष ध्यान रखें अन्यथा आपकी पूजा, प्रार्थना आदि करने का कोई महत्व नहीं रहेगा। निम्नलिखित बातें करके आप मंदिर और देव संबंधी अपराध करते हैं। इसके दुष्परिणाम भी आपको ही झेलना होंगे। शास्त्रों में जो मना किया गया है उसे करना पाप और कर्म को बिगाड़ने वाला माना गया है।
यहां प्रस्तुत हैं कुछ प्रमुख आचरण जिन्हें मंदिर में नहीं करना चाहिए अन्यथा आपकी प्रार्थना या पूजा निष्फल तो होती ही है, साथ ही आप देवताओं की नजरों में गिर जाते हो।
1.भगवान के मंदिर में खड़ाऊं या सवारी पर चढ़कर जाना,
2.भगवान के सामने जाकर प्रणाम न करना,
3.उच्छिष्ट या अपवित्र अवस्था में भगवान की वन्दना करना
5.एक हाथ से प्रणाम करना,
6.भगवान के सामने ही एक स्थान पर खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना,
7.भगवान के आगे पांव फैलाना,
8.मंदिर में पलंग पर बैठना या पलंग लगाना,
9.मंदिर में सोना,
10. मंदिर में बैठकर परस्पर बात करना,
11.मंदिर में रोना या जोर जोर से हंसना,
12.चिल्लाना, फोन पर बात करना, झगड़ना, झूठ बोलना, गाली बकना,
13.खाना या नशा करना,
14.किसी को दंड देना,
15.कंबल ओढ़कर बैठना,
16.अधोवायु का त्याग करना,
17.अपने बल के घंमड में आकर किसी पर अनुग्रह करना,
18, दूसरे की निंदा या स्तुति करना,
19.स्त्रियों के प्रति कठोर बात कहना,
20.भगवत-सम्बन्धी उत्सवों का सेवन न करना।
21.शक्ति रहते हुए गौण उपचारों से पूजा करना,
22.मुख्य उपचारों का प्रबन्ध न करना,
23.भगवान को भोग लगाए बिना ही भोजन करना,
24.सामयिक फल आदि को भगवान की सेवा में अर्पण न करना,
25. उपयोग में लाने से बचे हुए भोजन को भगवान के लिए निवेदन करना,
26.आत्म-प्रशंसा करना,
27. देवताओं को कोसना,
28.आरती के समय उठकर चले जाना,
29.मंदिर के सामने से निकलते हुए प्रणाम न करना,
मंदिर में प्रवेश से पूर्व...
आचमन विधान : मंदिर में प्रवेश से पूर्व शरीर और इंद्रियों को जल से शुद्ध करने के बाद आचमन करना जरूरी है। इस शुद्ध करने की प्रक्रिया को ही आचमन कहते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।
शास्त्रों में कहा गया है कि त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए दर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय के कान जैसी हो जाए।
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं:-
1.देवतीर्थ, 2.पितृतीर्थ, 3.ब्रह्मातीर्थ, 4.प्राजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।
मंदिर में जाने का सर्वश्रेष्ठ वार, जानिए कौन-सा....
शिव के मंदिर में सोमवार, विष्णु के मंदिर में रविवार, हनुमान के मंदिर में मंगलवार, शनि के मंदिर में शनिवार और दुर्गा के मंदिर में बुधवार और काली व लक्ष्मी के मंदिर में शुक्रवार को जाने का उल्लेख मिलता है। गुरुवार को गुरुओं का वार माना गया है।
रविवार और गुरुवार धर्म का दिन : विष्णु को देवताओं में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त है और वेद अनुसार सूर्य इस जगत की आत्मा है। शास्त्रों के अनुसार रविवार को सर्वश्रेष्ठ दिन माना जाता है। रविवार (विष्णु) के बाद देवताओं की ओर से होने के कारण बृहस्पतिवार (देव गुरु बृहस्पति) को प्रार्थना के लिए सबसे अच्छा दिन माना गया है।
गुरुवार क्यों सर्वश्रेष्ठ?
रविवार की दिशा पूर्व है किंतु गुरुवार की दिशा ईशान है। ईशान में ही देवताओं का स्थान माना गया है। यात्रा में इस वार की दिशा पश्चिम, उत्तर और ईशान ही मानी गई है। इस दिन पूर्व, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में यात्रा त्याज्य है।
गुरुवार की प्रकृति क्षिप्र है। इस दिन सभी तरह के धार्मिक और मंगल कार्य से लाभ मिलता है अत: हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यह दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है अत: सभी को प्रत्येक गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए और पूजा, प्रार्थना या ध्यान करना चाहिए।
मंदिर में पूजा या प्रार्थना क्यों... पूजा : पूजा एक रासायनिक क्रिया है। इससे मंदिर के भीतर वातावरण की पीएच वैल्यू (तरल पदार्थ नापने की इकाई) कम हो जाती है जिससे व्यक्ति की पीएच वैल्यू पर असर पड़ता है। यह आयनिक क्रिया है, जो शारीरिक रसायन को बदल देती है। यह क्रिया बीमारियों को ठीक करने में सहायक होती है। दवाइयों से भी यही क्रिया कराई जाती है, जो मंदिर जाने से होती है।
पूजा- आरती का वैज्ञानिक महत्व, जानिए।
प्रार्थना : प्रार्थना में शक्ति होती है। प्रार्थना करने वाला व्यक्ति मंदिर के ईथर माध्यम से जुड़कर अपनी बात ईश्वर या देव शक्ति तक पहुंचा सकता है। मानसिक या वाचिक प्रार्थना की ध्वनि आकाश में चली जाती है। प्रार्थना के साथ यदि आपका मन सच्चा और निर्दोष है तो जल्द ही सुनवाई होगी और यदि आप धर्म के मार्ग पर नहीं हैं तो प्रकृति ही आपकी प्रार्थना सुनेगी देवता नहीं।
प्रार्थना का दूसरा पहलू यह कि प्रार्थना करने से मन में विश्वास और सकारात्मक भाव जाग्रत होते हैं, जो जीवन के विकास और सफलता के अत्यंत जरूरी हैं। खुद के जीवन के बारे में निरंतर सकारात्मक सोचते रहने से अच्छे भविष्य का निर्माण होता है। मंदिर का वातावरण आपके दिमाग को सकारात्मक दिशा में गति देने लगता है। परमेश्वर की प्रार्थना के लिए वेदों में कुछ ऋचाएं दी गई है, प्रार्थना के लिए उन्हें याद किया जाना चाहिए।
मंदिर समय : हिन्दू मंदिर में जाने का समय होता है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधिकाल में ही संध्या वंदना की जाती है।
वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्याकाल- उक्त 2 समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।
दोपहर 12 से अपराह्न 4 बजे तक मंदिर में जाना, पूजा, आरती और प्रार्थना आदि करना निषेध माना गया है अर्थात प्रात:काल से 11 बजे के पूर्व मंदिर होकर आ जाएं या फिर अपराह्नकाल में 4 बजे के बाद मंदिर जाएं.। साभार:- डॉ0 विजय शंकर मिश्र
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