राम ने सीता की अग्नि परीक्षा क्यों ली ?

मैं बचपन से ही रामायण का पाठ भी करता था और प्रभु राम को अपना आदर्श भी मानता था। 

मगर जब कभी मेरे सामने कोई सवाल कर देता कि 
"रामायण में तो नारी को ताड़ना के योग्य कहा गया है तब मैं निरूत्तर हो जाता।"
(ढोल,गँवार, शूद्र,पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।) 

जब कभी कोई सवाल कर देता कि 
लंका विजय के बाद राम ने सीता की अग्नि परीक्षा क्यों ली ? 

राम तो खुद भगवान थे, उनको तो सीता के पवित्र होने ना होने की बात मालुम ही रही होगी। 
यह तो सीता के बहाने समस्त नारी जगत का अपमान है। 

ऐसे सवालों पर मैं निरूत्तर हो जाता। 
मगर संत संगति जब भी मिलती तब मैं इस सवाल पर चर्चा जरुर करता। 

बात सन 1992 की है। 
मुझे प्रयागराज से कटनी जाना था। ट्रेन थी तिरुपति एक्सप्रेस जो वाराणसी से चलकर सुबह साढे दस बजे प्रयागराज पहुँचती थी। उस वक्त इस ट्रेन में सवारी नहीं के बराबर होती थी। 
जिस डिब्बे में मैं चढा, उसी डिब्बे में दमोह के एक संत भी चढ़े। पूरे कोच में सिर्फ 5 सवारी थी। इत्तिफाक से मैं और वह संत जी आमने-सामने ही बैठ गये। 
थोड़ी देर बाद संत जी से बातें शुरु हुईं तो मालुम हुआ कि वह रामायणी हैं अर्थात रामकथा करते हैं। 

प्रयाग महिमा से शुरु हुई बात रामायण पर आकर रुक गयी। 

संत जी से मैंने सबसे पहले "ढोल, गँवार, शूद्र,पशु, नारी" पर प्रश्न कर दिया। 
मेरा प्रश्न सुनकर वह हँसने लगे। 

वह बोले - बेटा! फिल्में तो देखते होगे ? 
मैंने कहा - फिल्मों में मेरा कोई इंट्रेस्ट नहीं है। कुछ बहुत अच्छी फिल्में ही अब तक देखी है। 
उन्होंने पूछा - फिर तो मदर इण्डिया जरुर देखी होगी। 
मैंने कहा - हाँ, एक से ज्यादा बार। 
संत जी ने बोला - किससे प्रभावित हुए, उस फिल्म में जिसकी वजह से दोबारा देखने की इच्छा हुई ?
मैंने बोला - नरगिस दत्त से, विशेषकर उस सीन से जब वह गाँव की बेटी की इज्जत के लिये विवाह मंडप में अपने डकैत बेटे के सामने खडी हो गयी व भागते हुये अपने ही बेटे को गोली मार दी। 

संत जी ने बोला पूरी फिल्म में नरगिस के बोले कुछ डायलाग भी अब तक याद होंगे ? 
मैंने बोला - जी, कई सारे।

क्या आपको उस बनिया के भी कुछ डायलाग याद हैं, जिसने नरगिस की इज्जत से खेलने की कोशिश किया था व जिसकी बेटी को नरगिस का बेटा बिरजू विवाह मंडप से उठा ले जा रहा था ? 

अब मैं अपनी याददास्त पर जोर डालने लगा मगर उस बनिये का कोई डायलाग याद ही नहीं आया। 

मैंने बोला - नहीं बाबा जी, मुझे उसकी कही कोई बात याद नहीं है। 

उन्होंने बोला - क्यों ? फिल्म तो आपको बहुत अच्छी लगी, इसलिये एक से ज्यादा बार देख आये। उस बनिया के संवाद भी थे उस फिल्म में, निश्चित रुप से सारे संवाद आपने सुने होंगे। फिर भी एक भी याद नहीं है। ऐसा क्यों ??

मैंने बोला - उस मक्कार आदमीनुमा हैवान की बातों में मक्कारी और हैवानियत ही तो थी पूरी फिल्म में। भला उसको क्यों याद रखा जाये ? 

संत जी बोले
बस अब तुमको अपने प्रश्न का जवाब आसानी से मिल जायेगा। 
तुमको शायद यह मालुम ही नहीं होगा कि "ढोल,गँवार, शूद्र,पशु, नारी" वाला संवाद किसने और किस वक्त बोला है।

मैंने हामी भर दिया। 
संत जी बोले - बेटा! यह संवाद समुद्र ने उस वक्त बोला था जब समुद्र से सेना को रास्ता देने का विनय करते तीन दिन बिताने के बाद प्रभु राम ने समुद्र को सुखाने के लिये अपने धनुष पर बाण चढा लिया था। 

उस वक्त समुद्र को अपने अस्तित्व पर मडराते संकट का आभास हुआ और उसने बिना एक पल गँवाये हाथ जोडते हुये प्रभु राम के सामने उपस्थित हो गया था। 

समुद्र की कही बात को केवल इस आधार पर कि "रामायण में कही गयी है" अनुकरणीय तो नहीं माना जा सकता है। 

अगर इस आधार पर कि "फलाँ बात रामायण में कही गयी है" सवाल किये जायें तो रामायण में तो सुप्नखा व रावण द्वारा बोले गये संवाद भी हैं। 

रामायण की पूजा व अनुसरण का मतलब है कि हम अपने इष्टदेव के आचरण की पूजा कर रहे हैं, ना कि सुप्नखा और रावण की। 

इसके बाद अपनी बातों को सत्य साबित करने के लिये उन्होंने अपने पास से रामायण निकाली।

रामायण के सुन्दर काण्ड को खोल कर दोहा नम्बर 57 दिखाया जो निन्म लिखित है। 
बिनय ना मानत जलधि जड़,गये तीनि दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होई न प्रीती।।57।।
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इसके बाद 58 नम्बर दोहा भी पढाया जो काकभुशुणिड़ जी के शब्द हैं।
इसी दोहे की पहली चौपाई 
सभय सिंधू गहि पद प्रभु केरे। छ्महू नाथ अब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कई नाथ सहज जड़ करनी।।
अर्थात.... 
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड कर कहा - हे नाथ! मेरे सब अवगुण क्षमा कर दीजिये।हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है। 
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इसके बाद की चौपाई है
तब प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रन्थनि गाये।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ।।
अर्थात....
आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिये उत्पन्न किया है। सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिये स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है।
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इसके बाद की चौपाई वही है जिसमें यह बात कही गयी है।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी किन्ही।।
ढोल, गँवार, शूद्र,पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।

प्रभु आपने अच्छा किया जो मुझे दण्ड दिया किन्तु जीवों के स्वभाव की मर्यादा भी आपकी बनायी हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, यह सब दंड के अधिकारी हैं।
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यह सब रामायण में दिखाने के बाद संत जी बोले अब आप समझ गये कि यह बात जो रामायण में कही गयी है, वह ना तो प्रभु राम के वचन हैं, ना ही किसी ऋषि-मुनि के। फिर भला हम प्रभु भक्त इस बात का अनुसरण क्यों करें ? 

अब अगर रामायण पर और कोई शंका हो तो बताइए, मैं उसका भी समाधान कर दूँगा।

फिर सीता अग्नि परीक्षा का सवाल भी मैंने उनके सामने उठा ही दिया।
संत जी हँसने लगे।

बोले- बेटा कब प्रभु राम ने सीता की अग्नि परीक्षा लिया ? 

मैंने बोला- लंका से वापस आने के बाद अपनी सेना के सामने प्रभु राम ने सीता की अग्नि परीक्षा लिया था। ऐसा तुलसी दास जी की रामायण में भी लिखा हुआ है। 

अब संत जी ने फिर रामायण खोल कर उसके पन्ने पलटने लग गये।
उन्होंने मुझे अरण्य काण्ड का दोहा नम्बर 23 दिखाया।

लछिमन गए बनहि जब लेन मूल, फल, कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद।।

अर्थात.... 
लक्ष्मण जी जब कंद, मूल, फल लेने के लिये वन में गये तब अकेले में कृपा और सुख के सागर श्री रामचन्द्र जी हँसकर जानकी जी से बोले-

सुनहु प्रियाब्रत रुचिर सुसीला।
मैं कछु करिब ललित नरलीला।।
तुम पावक महूँ करो निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा।।

अर्थात...
हे प्रिये! हे सुन्दर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा। इसलिये जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि देव की शरण में रहो।  
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जबहि राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी।।
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसई सील रुप सुबिनिता।।

अर्थात....
श्री राम जी ने ज्योंहि सब समझा कर कहा, त्यों ही श्री सीता जी प्रभु के चरणों को हृदय में धर कर अग्नि में समा गईं। सीता जी ने अपनी ही छायामूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके जैसे ही शील-स्वभाव और रुपवाली तथा वैसी ही विनम्र थी। 
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आगे के दोहे में लिखा है
लछिमनहु यह मरमु ना जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।।

अर्थात.... 
भगवान ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्य को लक्ष्मण जी ने भी नहीं जाना। 
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यह सब कुछ दिखा-पढा कर संत जी ने मुझसे बोला कि अब आप यह समझ गये कि सुप्नखा के नाक-कान काटने व खर दूषण से युद्ध के बाद राम यह समझ गये थे कि रावण की तरफ़ से कोई ना कोई कार्यवाही होनी तय है। अत: सीता को सुरक्षित अग्नि देव की शरण में भेज दिया। इसके बाद जो सीता राम के साथ थी वह केवल उनकी छाया मात्र थी। 

लंका विजय के बाद प्रभु राम ने जान लिया था कि अब रावण का अन्त हो गया है इसलिये सीता को कोई खतरा नहीं है। लम्बे समय से सीता के अलग रहने के कारण उनके मन में भी अपनी असली सीता से मिलने की चाह थी व यही इच्छा माता सीता के मन में रही होगी। इसलिये प्रभु राम ने माता सीता के सामने आते ही आग से गुजरकर अपने पास आने को बोला ताकि यह रहस्य उद्घाटित ना हो जाये। 

चूँकि यह बात लक्ष्मण जी को भी नहीं मालुम थी इसलिये लक्ष्मण जी को भी प्रभु का यह आदेश नागवार गुजरा। लक्ष्मण जी कुछ कहते उसके पहले ही माता सीता ने लक्ष्मण जी को यह कहकर कि 
लछिमन होहु धरम के नेगी।
पावक प्रगट करहु तुम बेगी ।।
(लंका काण्ड दोहा 108 चौपाई नम्बर 1) 

अर्थात...
हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के आचरण में सहायक बनो और तुरंत आग तैयार करो। 

वास्तव में जिस प्रसंग को राम द्वारा सीता की अग्नि परीक्षा बता दिया गया, वह वास्तव में राम का अग्नि देव से वास्तविक सीता प्राप्त करने का प्रसंग था। 

मुझे अपने दोनॉन प्रश्नों के उत्तर मिल गये। 

मुझे लगता है कि इस पोस्ट को अगर अन्त तक आप पढ पाये तो इन दोनों प्रसंगों की वास्तविकता आप भी जान जायेंगे। 

पोस्ट में लिखी गयी चौपाइयाँ व दोहे गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा संवत 2032 में प्रकाशित रामचरित मानस से देखकर लिखा है। आप खुद चेक कर सकते हैं।

साभार
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जय सत्य सनातन🚩*

*🚩हिन्दुराष्ट्र अनिवार्य🏹*
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सतीश बंसल, निवेश सलाहकार, 
Author, (World Record Holder),
कटटर सनातनी, राष्ट्र भक्त, रक्त दाता
Youtuber, Blogger
 हिंदू धर्म की जानकारी के लिए ब्लॉग पढें..
kattarsanatani.blogspot.com

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